केशवानन्द भारती बनाम स्टेट ऑफ केरल ( ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 1461 )
केशवानन्द भारती बनाम स्टेट ऑफ केरल ( ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 1461 )
भूमिका
संवैधानिक दृष्टि से यह प्रकरण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है । इस प्रकरण में न्यायालय के समक्ष अनेक विचारणीय बिन्दु थे , यथा
( i ) संविधान के 24 वें , 25 वें एवं 29 वें संशोधन की विधिमान्यता का प्रश्न
( ii ) अनुच्छेद 13 ( 2 ) , 14 , 19 ( 1 ) ( च ) , 25 , 26 एवं 31 की व्याख्या का प्रश्न :
( iii ) संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति का प्रश्न आदि ।
तथ्य
पिटिश्नर केशवानन्द भारतीय द्वारा केरल राज्य के विरुद्ध संविधान के अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत दिनांक 25 मार्च , 1970 को एक याचिका संविधान के अनुच्छेद 14 , 19 ( 1 ) ( च ) , 25 , 26 एवं 31 के अन्तर्गत प्रदत्त मूल अधिकारों के प्रवर्तन हेतु प्रस्तुत की गई थी । इसमें पिटिश्नर की ओर से यह प्रार्थना की गई थी कि केरल लैण्ड एक्ट , 1963 में सन् 1969 में किये गये संशोधनों को असंवैधानिक , शून्य एवं शक्तिबाधक घोषित किया जाये क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 14 , 19 ( 1 ) ( च ) , 25 , 26 एवं 31 का अतिक्रमण करते हैं । इसी बीच संसद द्वारा निम्नांकित संविधान संशोधन अधिनियम पारित किये गये
( i ) 24 वाँ संशोधन अधिनियम 1971
( ii ) 25 वाँ संशोधन अधिनियम , 1971
( iii ) 29 वाँ संशोधन अधिनियम , 1972 ,
29 वें संशोधन द्वारा केरल लैण्ड रिफार्स एक्ट , 1969 , केरल लैण्ड रिफार्स एक्ट , 1971 आदि को संविधान की नवीं अनुसूची में सम्मिलित कर दिया गया है । 24 वें संशोधन द्वारा संविधान के अनुच्छेद 368 में कतिपय परिवर्तन करते हुए संसद को संविधान में कैसा भी संशोधन करने की शक्तियाँ प्रदान कर दी गई और ऐसे संशोधन को अनुच्छेद 13 ( 2 ) की परिधि से बाहर कर दिया गया ।
25 वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31 के खण्ड ( 2 ) में प्रयुक्त शब्द प्रतिकर के स्थान पर शब्द ' राशि ' प्रतिस्थापित कर दिया गया । इन सभी संशोधनों को इस याचिका में चुनौती दी गई । इस मामले की सुनवाई उच्चतम न्यायालय के 13 न्यायाधीशों की एक पूर्ण पीठ द्वारा की गई । पिटिश्नर की ओर से पैरवी विख्यात विधिवेत्ता एन.ए. पालकीवाला द्वारा की गई । पिटिश्नर की ओर से उच्चतम न्यायालय के समक्ष मुख्य रूप से निम्नांकित तर्क प्रस्तुत किये गये
( 1 ) संविधान के अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत प्रदत्त शक्तियों के प्रयोग में संसद द्वारा संविधान के भाग तीन में किसी प्रकार का ऐसा संशोधन नहीं किया जा सकता जिससे मूल अधिकार प्रतिकूलतया प्रभावित हो ।
( 2 ) अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत प्रदत्त संसद की शक्तियाँ अत्यन्त सीमित हैं ; इन शक्तियों के अन्तर्गत संसद संविधान में ऐसा कोई संशोधन या परिवर्तन नहीं कर सकती जिससे संविधान का आधारभूत ढाँचा ही नष्ट हो जाये ।
( 3 ) संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्तियाँ अनुच्छेद 13 ( 2 ) के अध्यधीन है ।
( 4 ) संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक अंग है ; अतः संशोधन के समय उसे ध्यान में रखा जाना अपेक्षित है ।
( 5 ) संविधान में संशोधन अनुच्छेद 13 ( 2 ) के अांतर्गत विधि है ; अतः संसद द्वारा संविधान में ऐसा कोई संशोधन नहीं किया जा सकता है जो मूल अधिकारों का उल्लंघन या अतिक्रमण करने वाला हो ।
( 6 ) संसद द्वारा अनुच्छेद 4 , 169 अनुसूची 5 पैरा 7 और अनुसूची 6 के पैरा 27 अनुसार संशोधन कर नागरिकों के अधिकारों को नहीं छीना जा सकता ।
( 7 ) संविधान के 29 वें संशोधन द्वारा संविधान की अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को नष्ट कर अनुच्छेद 31 ( ग ) में संसद एवं राज्य विधानमण्डल दोनों को ब्लेक चार्टर प्रदान कर दिया गया आदि । जवाब में उत्तरदाता की ओर से निम्नांकित तर्क प्रस्तुत किये गये
( i ) संविधान के अनुच्छेद 368 की भाषा से यह स्पष्ट है कि इसमें संशोधन की शक्तियाँ एवं प्रक्रिया दोनों सन्निहित हैं ।
( ii ) अनुच्छेद 369 के अन्तर्गत संविधान संशोधन से अभिप्राय संविधान में किसी भी प्रकार के संशोधन से है ।
( iii ) अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त विधि शब्द में संवैधानिक विधि सम्मिलित नहीं है ।
( iv ) संविधान की प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है ; अतः संशोधन के समय उस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक नहीं है ।
( v ) संसद् की संविधान में संशोधन करने की शक्तियाँ सीमित नहीं हैं ; उसे संशोधन की विस्तृत शक्तियाँ प्राप्त हैं ।
( vi ) संविधान का 24 वाँ संशोधन संवैधानिक शक्तियों के भीतर रहकर ही किया गया है ।
( vii ) संविधान में आधारभूत ढाँचे जैसे शब्दों का कहीं प्रयोग नहीं किया गया है ; अत : न्यायालय के समक्ष ऐसे तर्क रखना अर्थहीन है ।
निर्णय
इस मामले की सुनवाई उच्चतम न्यायालय की एक विशेष न्यायपीठ द्वारा की गई और निर्णय मुख्य न्यायाधीश सीकरी द्वारा सुनाया गया । इस याचिका की सुनवाई के समय न्यायालय के समक्ष छ : रिट याचिकाएँ और लम्बित थी जिनमें संविधान के 24 वें , 25 वें एवं 29 वें संशोधनों की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी । न्यायालय ने अपना निर्णय निम्नानुसार उद्घोषित किया
( 1 ) संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक अभिन्न अंग है ; उसे अनुच्छेद 368 की परिधि से बाहर नहीं किया जा सकता ।
( 2 ) अनुच्छेद 13 ( 2 ) संविधान में पहले से ही विद्यमान है ; अर्थात् 24 वें संशोधन के समय भी यह अनुच्छेद अस्तित्व में था ; इसलिए संसद द्वारा अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत ऐसा कोई संशोधन नहीं किया जा सकता है जिससे मूल अधिकार कम हो या छीन जायें । इस परिप्रेक्ष्य में संविधान का 24 वाँ संशोधन विधिमान्य है क्योंकि इससे न तो मूल अधिकारों को कम किया गया है और न इससे संविधान के बुनियादी ढांचे पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है ।
( 3 ) 25 वें संशोधन द्वारा शब्द प्रतिकर के स्थान पर शब्द राशि शब्द पीड़ित व्यक्ति को दी जाने वाली राशि का युक्तयुक्त होना आवश्यक होगा ।
( 4 ) संविधान का 29 वाँ संशोधन ; जिसके द्वारा कुछ अधिनियमों को सौवधीन की नवीं अनुसूची में सम्मिलित किया गया है ; विधिमान्य है ।
( 5 ) संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान में संशोधन की शक्तियाँ एवं प्रक्रिया दोनों सम्मिलित हैं ।
( 6 ) संसद द्वारा संविधान में ऐसा कोई संशोधन या परिवर्तन नहीं किया जा सकता है जिससे उसका आधारभूत ढाँचा ही नष्ट हो जाये ।
इस प्रकार उच्चतम न्यायालय द्वारा सभी प्रश्नों का एक - एक करके समाधान किया गया ।
विधि के सिद्धान्त
इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा विधि के अनेक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं । इनमें से मुख्य - मुख्य इस प्रकार हैं
( 1 ) संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक अभिन्न अंग है ।
( 2 ) संसद द्वारा संविधान में ऐसा कोई संशोधन या परिवर्तन नहीं किया जा सकता जिससे संविधान का आधारभूत ढाँचा ही नष्ट हो जाये ।
( 3 ) संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन की शक्तियाँ एवं प्रक्रिया दोनों सन्निहित है ।
( 4 ) प्रतिकर के रूप में दी जाने वाली राशि का युक्तियुक्त होना आवश्यक है । इस निर्णय द्वारा गोलकनाथ बनाम स्टेट ऑफ पंजाब ( ए.आई.आर. 1967 एस.सी. 1643 ) के निर्णय को पलट दिया गया ।
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