मुस्लिम विवाह के प्रकार व उनके विधिक प्रभाव Types of Muslim marriage and their legal Effects

 

मुस्लिम विवाह के प्रकार व उनके विधिक प्रभाव Types of Muslim marriage and their legal Effects


मुस्लिम विवाह के प्रकार व उनके विधिक प्रभाव Types of Muslim marriage and their legal Effects

मुस्लिम विधि की सुन्नी शाखा के अन्तर्गत विवाह मुख्य रूप से तीन प्रकार के माने जाते हैं -
(1) मान्य विवाह (Valid marriage), 
(2) शून्य विवाह (Void marriage), एवं 
( 3 ) अमान्य विवाह ( Irregular mariage)।

लेकिन शिया शाखा के अन्तर्गत विवाह केवल दो प्रकार के ही प्रचलित हैं -
(1) मान्य विवाह,एवं 
(2) शून्य विवाह ।

शिया शाखा में अमान्य विवाह का प्रचलन नहीं है और न ऐसे विवाहों को मान्यता प्रदान की गई है। इसमें विवाह या तो मान्य होता है या फिर शून्य ।


मान्य विवाह को 'वैध विवाह' अथवा 'सही विवाह' (Sahih Marriage ) भी कहा जाता है। इसी प्रकार शून्य विवाह को 'अवैध' अथवा 'बातिल विवाह' (Ratil marrriagee) एवं अमान्य विवाह को 'फासिद विवाह' (Fasid marriage) कहा जाता है।

(1) सही विवाह 
सही विवाह से अभिप्राय ऐसे विवाह से हैं जो विधिमान्य विवाह की समस्त औपचारिकताओं को पूरा कर सम्पन्न किया जाता है। विधिमान्य विवाह की निम्नांकित अनिवार्यतायें हैं- 
(i) विवाह में के दोनों पक्षकार एवं स्वस्थचित हो,
(ii)विवाह में के पक्षकारों द्वारा सम्मति प्रदान कर दी गई हो तथा ऐसी सम्मति स्वतंत्र हो,
(iii)विवाह में के एक पक्षकार द्वारा 'प्रस्ताव' किया गया हो तथा दूसरे पक्षकार द्वारा 'स्वीकृति' प्रदान की गई हो, इसे 'इजब-ओ-कबूल' कहा जाता है। (iv) प्रस्ताव एवं स्वीकृति एक बैठक (One meeting) में की गई हो, 
(v) विवाह ( निकाह ) के समय आवश्यक गवाह उपस्थित रहें हो, तथा 
(vi) विवाह निषिद्ध आसत्तियों के भीतर नहीं किया गया हो ।

विधिमान्य विवाह की अनिवार्य शर्तों वाले प्रश्न में इन सभी पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। 


(2) बातिल विवाह - निषिद्ध आसत्तियों के भीतर किया गया विवाह 'बातिल विवाह' कहलाता है। निषिद्ध आसत्तियों से अभिप्राय ऐसी स्त्रियों से है

जिनके साथ किसी पुरुष द्वारा विवाह नहीं किया जा सकता है। निषिद्ध आसत्तियों के भीतर तीन प्रकार के सम्बन्ध आते हैं, अर्थात् (i) रक्त सम्बन्ध, 
(ii) विवाह सम्बन्ध, एवं
(iii) धात्रेय - सम्बन्ध ।

इन्हें 'स्थायी प्रतिषेध' (Absolute Prohibition) भी कहा जाता है। इनका विस्तृत विवेचन विधिमान्य विवाह की अनिवार्य शर्तों वाले प्रश्न में किया गया है।

(3) फासिद दिवाह - फासिद विवाह के अन्तर्गत निम्नांकित विवाह आते

(i) साक्षियों (गवाहों) की अनुपस्थिति में किया गया विवाह,

(ii) पांचवीं पत्नी के साथ किया गया विवाह,

(iii) एक ही समय में एक से अधिक पति के साथ किया गया विवाह,
(iv) इद्दत की अवधि के दौरान किया गया विवाह,

(v) किसी अन्य पंथ की स्त्री के साथ किया गया विवाह,

(vi) अवैध संभोग वाला विवाह,
(vii) गर्भवती स्त्री से विवाह,

(viii) तीर्थ यात्रा के दौरान किया गया विवाह,
(ix) तलाक के पश्चात् किया गया पुनर्विवाह, आदि ।

इन निर्योग्यताओं को 'अस्थायी प्रतिषेध' (Relative Prohibitions) भी । अस्थायी प्रतिषेध से अभिप्राय ऐसे प्रतिषेधों से हैं जिनको कुछ कहा जाता औपचारिकताओं के पूर्ण होने पर दूर किया जा सकता है।

उदाहरणस्वरूप पांचवीं पत्नी के साथ किया गया विवाह उस समय मान्य हो जाता है जब प्रथम चार पलियों में से किसी एक को तलाक दे दिया जाता है या उसके साथ विवाह विच्छेद हो जाता है। (शाहूलमीदा बनाम सुबैदा, 1970 एम.एल.जे. 562)।

सही विवाह के प्रभाव (परिणाम) - सही विवाह के निम्नांकित प्रभाव अर्थात् परिणाम होते हैं-

(i) दोनों पक्षकार एक-दूसरे से इसे प्राप्त करने के हकदार हो जाते हैं, 
(ii) पक्षकारों के बीच निषिद्ध आसत्तियों का उद्भव हो जाता है,

(iii) पति-पत्नी के बीच समागम वैध हो जाता है और उनसे उत्पन्न सन्तान

औरस होती है,

(iv) पति को दाम्पत्य जीवन का आनन्द (लाभ) उठाने का अधिकार मिल जाता है;

(v) उसे पत्नी के साथ समागम (संभोग) करने का अधिकार होता है,
(vi) विवाह विच्छेद की अवस्था में पत्नी को इद्दत की अवधि काटनी होती

(vii) पत्नी पति के युक्तियुक्त आदेशों (आज्ञाओं) की पालना करने के लिए आबद्ध हो जाती है,

(viii) पत्नी महर प्राप्त करने की हकदार हो जाती है,

(ix) पत्नी पति से भरणपोषण पाने की हकदार हो जाती है,

(x) पत्नी अपने लिए पृथक कमरे की मांग कर सकती है,

(xi) पति के यदि एक से अधिक पत्नियां हों तो वह समान व्यवहार की अपेक्षा कर सकती है, तथा

(xii) उचित आधारों पर वह विवाह विच्छेद कराने की हकदार हो जाती है।

बातिल विवाह के परिणाम- बातिल विवाह आरम्भतः शून्य (Void-ab. initio) होता है। ऐसे विवाह के कोई विधिक प्रभाव अथवा परिणाम नहीं होते हैं। पक्षकारों के बीच किसी प्रकार के अधिकार एवं कर्त्तव्य उद्भूत नहीं होते। ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्तान जारज मानी जाती है। वस्तुतः बातिल विवाह का मुस्लिम विधि के अन्तर्गत कोई अस्तिस्व ही नहीं है।



फासिद विवाह के परिणाम - फासिद विवाह के प्रभावों को दो शीर्षकों के अन्तर्गत देखा जा सकता है अर्थात् विवाहोत्तर संभोग से पूर्व एवं विवाहोत्तर संभोग के पश्चात् ।

विवाहोत्तर संभोग से पूर्व फासिद विवाह का न तो कोई अस्तित्व होता है और न ही विधिक प्रभाव । यदि ऐसे संभोग से पूर्व विवाह विच्छेद हो जाता है तो पत्नी को इद्दत की अवधि काटने की आवश्यकता नहीं होती है। वह विवाह- विच्छेद के तुरन्त बाद किसी अन्य पुरुष से विवाह कर सकती है। लेकिन विवाहोत्तर संभोग के पश्चात्-

(i) पत्नी महर प्राप्त करने की हकदार हो जाती है; -
(ii) पत्नी को इद्दत की अवधि काटनी होती है,

(iii) सन्तान औरस मानी जाती है, (नूरुल हुसैन बनाम मोहम्मद हुसैन, 7 आइ.सी. 1222),

(iv) पक्षकारों के बीच पारस्परिक उत्तराधिकार का अधिकार उद्भूत नहीं होता,

(v) पत्नी भरणपोषण प्राप्त करने की हकदार नहीं होती, तथा

(vi) पति द्वारा दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना का वाद प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। (मुस. बख बीबी बनाम क्वेमदीन, ए.आई. आर. 1994 लाहौर 907)

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