भरणपोषण पाने का अधिकार मुस्लिम विधि Right to Maintenance Muslim Law Rights & Duties Law's Study 📖
भरणपोषण पाने का अधिकार मुस्लिम विधि Right to Maintenance Muslim Law Rights & Duties Law's Study 📖
भरणपोषण पाने का अधिकार मुस्लिम विधि Right to Maintenance Muslim Law Rights & Duties Law's Study 📖
मुस्लिम विधि के अन्तर्गत भरणपोषण पाने के अधिकार किसको है? उनके अधिकार व कर्तव्य
Who has the right to get maintenance under Muslim law? their rights and duties
प्रायः सभी धर्मशास्त्रों में प्रत्येक व्यक्ति पर अपनी पत्नी, सन्तान, वृद्ध माता-पिता आदि के भरणपोषण का दायित्व अधिरोपित किया गया है। कोई भी व्यक्ति निर्धनता, बीमारी आदि का बहाना बनाकर अपने इस दायित्व से बच नहीं सकता। यह बात अलग-अलग है कि विभिन्न धर्मों अथवा विधियों में भरणपोषण के सम्बन्ध में कुछ भिन्नतायें हैं। भरणपोषण एक विधिक दायित्व भी है और नैतिक दायित्व भी ।
अरबी भाषा में भरणपोषण को "नफकः " कहा जाता है जिसका अर्थ है- वह राशि जिसे कोई व्यक्ति अपने परिवार पर व्यय करता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि परिवार की आवश्यकता पूर्ति पर किया जाने वाला व्यय 'भरणपोषण' (Maintenance) कहलाता है।
भरणपोषण में भोजन, वस्त्र एवं निवास तीनों को सम्मिलित किया गया है। मुल्ला द्वारा भी इसकी पुष्टि की गई है।
भरणपोषण के हकदार व्यक्ति — मुस्लिम विधि के अन्तर्गत निम्नांकित को भरण पोषण का हकदार माना गया है-
(i) पत्नी,
(ii) वंशज,
(iii) पूर्वज, एवं
(iv) अन्य सम्बन्धी |
दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मुस्लिम विधि के अन्तर्गत निम्नांकित व्यक्ति भरणपोषण के हकदार हैं- (i) पत्नी, (ii) पुत्र, पुत्रियाँ, (iii) पौत्र, पौत्रियाँ, (iv) माता—पिता, (v) मातामह, पितामह, (vi) पुत्र वधू, (vii) सौतली माता, एवं (viii) अन्य व्यक्ति ।
(1) पत्नी-पत्नी का अपने पति से भरणपोषण प्राप्त करने का अनन्य अधिकार है। जब तक पत्नी अपने पति के प्रति वफादार है और उसकी आज्ञा का पालन करती है, पति उसका भरणपोषण करने के लिए आबद्ध है। वह निर्धनता, बीमारी, आदि का बहाना बनाकर अपने इस दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता।
बेली (Baillie) के अनुसार—यदि पत्नी इतनी कुमारी अवस्था में है कि वह संभोग योग्य नहीं है तो पति उसके भरणपोषण से इन्कार कर सकता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पत्नी अपने पति से तब तक भरणपोषण पाने की हकदार बनी रहती है जत तक वह
(i) अपने पति के प्रति विश्वासपात्र या निष्ठावान बनी रहती है, और
(ii) उसके युक्तियुक्त आदेशों का पालन करती रहती है।
लेकिन पत्नी का भरणपोशण का यह अधिकार निम्नांकित दशाओं में समाप्त हो जाता है—
(क) जब पत्नी वैवाहिक संभोग से इन्कार कर देती है, [मोहम्मद अली बनाम मुस. गुलाम फातिमा, (1935) 160 आई.सी. 365] अथवा
(ख) जब वह अपने पति के प्रति विश्वासपात्र नहीं रह जाती है, अर्थात् उसकी आज्ञाओं का पालन नहीं करती है। [ए बनाम बी (1896) 21 बम्बई 77]
लेकिन यहाँ और उल्लेखनीय है कि (i) यदि पति तात्कालिक महर (Prompt dower) का भुगतान नहीं करता है तो पत्नी संभोग से इन्कार करते हुए तथा उसके प्रति आज्ञाकारी नहीं रहते हुए भी भरणपोषण पाने की हकदार होती है। [नजीमन निस्सा बनाम सिराजुद्दीन, (1946) 228 आई.सी. 198], तथा (ii) यदि पति, पत्नी के प्रति निर्दयतापूर्ण व्यवहार करता है तो पत्नी पति का मकान छोड़कर अर्थात् पति से अलग रहकर भी भरणपोषण पाने की हकदार होती है। (अमीर मोहम्मद बनाम मुस. बूसरा, ए.आई.आर. 1956 राजस्थान 102 )
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मुस्लिम विधि के अन्तर्गत विवाह एक संविदा है, संभोग जिसकी एक आवश्यक नियति है। अतः यदि पति नपुंसकता के कारण अपने दाम्पत्य कर्त्तव्यों के निर्वहन में असफल रहता है तो भी पत्नी अपने पति से पृथक रहकर भरणपोषण का क्लेम कर सकती है। (सिराज मोहम्मद खान जान मोहम्मद खान बनाम हाफिजून्निसा यासीन खां, ए.आई. आर. 1981 एस.सी. 1972)
भरणपोषण की यह व्यवस्था वैयक्तिक विधि के अधीन तथा वैवाहिक जीवन काल के दौरान की है।
तलाकशुदा स्त्री का भरणपोषण का अधिकार- तलाकशुदा स्त्री के भरणपोषण की व्यवस्था अन्य स्त्रियों के भरणपोषण की व्यवस्था से भिन्न है। इस सम्बन्ध में 'मोहम्मद अहमद खां बनाम शहवानो बेगम' (ए.आई.आर.1985 एस.सी. 945) का मामला उद्धरणीय है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा तलाकशुदा मुस्लिम स्त्रियों को अपने पति से तब तक भरणपोषण पाने का हकदार माना गया था जब तक वह पुनर्विवाह नहीं कर लेती। लेकिन कालान्तर में 'मुस्लिम स्त्री (विवाह-विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986, पारित कर इस व्यवस्था को बदल दिया गया। अब ऐसी स्त्रियों को केवल इद्दत की अवधि तक ही भरणपोषण का हकदार माना गया है । इसके पश्चात् वे अपने सम्बन्धियों तथा वक्फ बोर्ड से भरणपोषण पाने की हकदार होती है।
'मोहम्मद सिद्दिक अली बनाम मुस. फातिमा रशीद' (ए.आई.आर. 2007 एन.ओ. सी. 2037 गुवाहाटी) के मामले में गुवाहाटी उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला के पूर्व पति को इद्दत की अवधि के बाद भी अपनी तलाकशुदा पत्नी के भरणपोषण की समुचित व्यवस्था करनी चाहिये। स्वयं मजिस्ट्रेट भी तलाकशुदा पत्नी के भरणपोषण के लिए एकमुश्त अथवा किस्तों में भरणपोषण की राशि के संदाय का आदेश दे सकता है।
'गयासुद्दीन खान बनाम कहकशा खान' (ए.आई.आर. 2015 उड़ीसा 66) के मामले में यह कहा गया है कि यद्यपि अधिनियम में भरणपोषण की राशि में वृद्धि करने का कोई प्रावधान नहीं है, तथापि बदली हुई परिस्थितियों में ऐसी वृद्धि की जा सकती है।
'तमिलनाडु वक्फ बोर्ड बनाम फातिमा' (ए.आई. आर. 1996 एस.सी. 2423) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि इद्दत के पश्चात् तलाकशुदा मुस्लिम महिला भरणपोषण हेतु सीधे वक्फ बोर्ड में आवेदन कर सकती है। उसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह पहले अपने सम्बन्धियों से भरणपोषण का क्लेम करें और उनके असमर्थ होने पर वक्फ बोर्ड में आवेदन करें।
शीबा पुलिकल बनाम शौकत अली (ए.आई.आर. 2012 केरल 60) के मामले में केरल उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला तलाक के बाद भी अपने पति के विरुद्ध अपने आभूषण आदि लौटाने के लिए सिविल न्यायालय में वाद संस्थित कर सकती है। सिविल न्यायालय अथवा पारिवारिक न्यायालय को ऐसे मामलों की सुनवाई करने की अधिकारिता है। मुस्लिम स्त्री (विवाह-विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 3 इसमें बाधक नहीं है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अन्तर्गत भी पत्नी अपने पति से भरणपोषण पाने की हकदार मानी गई है। स्वीय विधि का दण्ड प्रक्रिया संहिता के उपबंधों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं है। लेकिन तलाकशुदा स्त्री के भरणपोषण के मामले में दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अन्तर्गत कार्यवाही केवल तभी की जा सकती है जब विवाह में पक्षकार 'मुस्लिम स्त्री (विवाह-विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986' धारा 5 के अन्तर्गत इस हेतु न्यायालय से आवेदन करें।
'शमीम बेग बनाम नजमुन्निस्सा बेगम' (ए.आई.आर. 2007 एन.ओ.सी. 2085 मुम्बई) के मामले में मुम्बई उच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि तलाकशुदा पत्नी का भरणपोषण करने के दायित्व से बचने के लिए तलाक के तथ्य को साबित किया जाना आवश्यक है।
मुस्लिम स्त्री ( तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986 की धारा 3 के अन्तर्गत भरणपोषण के आवेदन की सुनवाई करने की अधिकारिता केवल मजिस्ट्रेट को है । पारिवारिक न्यायालय को नहीं। (मो. नदीम बनाम श्रीमती तालिया फातिमा उर्फ शमा परवीन, ए.आई. आर. 2012 एन.ओ.सी. 37 इलाहाबाद)
(2) वंशज - मुस्लिम विधि के अन्तर्गत पुत्र एवं पुत्रियों को भी अपने पिता से भरणपोषण पाने का हकदार माना गया है। इसके अनुसार —
(i) पुत्र तब तक भरणपोषण पाने के हकदार होते हैं जब तक कि वे वयस्क नहीं हो जाते,
(ii) पुत्रियाँ तब तक भरणपोषण पाने की हकदार होती है जब तक कि वे अविवाहित रहती है अर्थात् विवाह नहीं कर लेती, तथा
(iii) वयस्क पुत्र भी अपने पिता से भरणपोषण पाने के हकदार होते हैं यदि किसी बीमारी या अंग शैथिल्य द्वारा अयोग्य हो ।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बच्चे माता की अभिरक्षा में रहते हुए भी
पिता से भरणपोषण पाने के हकदार माने गये हैं। (मोहम्मद शमसुद्दीन बनाम नूरजहाँ बेगम, ए.आई. आर. 1955 हैदराबाद 144)
लेकिन जहाँ बच्चे स्वयं अपनी सम्पत्ति से भरणपोषण करने में समर्थ होते हैं वहाँ पिता का भरणपोषण का दायित्व समाप्त हो जाता है।
यदि पिता निर्धन है अर्थात् उसके पास भरणपोषण के पर्याप्त साधन नहीं है और माता के पास ऐसे साधन उपलब्ध है तब माता अपने बच्चों का भरणपोषण करने के लिए उत्तरदायी हो जाती है।
फिर यदि पिता एवं माता दोनों निर्धन हैं तो बच्चों का भरणपोषण करने का दायित्व पितामह पर आ जाता है। बशर्ते कि उसके पास आय के पर्याप्त साधन हो अर्थात् वह भरणपोषण करने की स्थिति में हो ।
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अन्तर्गत तलाकशुदा मुस्लिम स्त्री के बच्चों को अपने पिता से भरणपोषण प्राप्त करने का अधिकार है। मुस्लिम स्त्री (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 3 (1) (ख) द्वारा इस अधिकार को छीना नहीं गया है। ऐसे बच्चे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अन्तर्गत भरणपोषण के हक़दार हैं। (मोहम्मद अब्दुल है उर्फ फारुक पाशा बनाम सालेचा खातून, ए.आई.आर. 2007 एन.ओ.सी. 737 मुम्बई)
'मुस्तकिम बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश' (ए.आई.आर. 2015 एन.ओ.सी. 1081 इलाहाबाद) के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा यह विनिर्धारित किया गया है कि मुस्लिम वयस्क अविवाहित पुत्रियाँ स्वीय विधि के अन्तर्गत भरणपोषण का क्लेम कर सकती हैं। दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अन्तर्गत नहीं। लेकिन यदि धारा 125 के अन्तर्गत भरणपोषण अनुदत्त कर दिया गया है तो उसमें हस्तक्षेप किया जाना उचित नहीं माना गया, क्योंकि इससे वादों की बाहुल्यता बढ़ती है।
अधर्मज शिशु पिता से भरणपोषण पाने के हकदार नहीं हैं। वे माता से भरणपोषण का क्लेम कर सकते हैं। 'पावित्री बनाम काथीसुम्मा' (ए.आई.आर. 1959 केरल 319) के मामले में केरल उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि अधर्मज शिशुओं के भरणपोषण का प्रबन्ध करने का दायित्व ख्यात पिता पर होता है न कि नैसर्गिक पिता पर ।
(3) पूर्वज - जिस प्रकार पिता अपने बच्चों का भरणपोषण करने के लिए उत्तरदायी होता है उसी प्रकार बच्चे भी अपने माता-पिता का भरणपोषण करने के लिए उत्तरदायी होते हैं।
माता-पिता के भरणपोषण के सम्बन्ध में मुल्ला के अनुसार निम्नांकित व्यवस्था है-
(i) यदि बच्चों की हालत अच्छी है तो वे अपने माता-पिता का भरणपोषण करने के लिए आबद्ध है चाहे माता-पिता स्वयं ही अर्थोपार्जन करते हो,
(ii) पुत्र अपनी निर्धन माता का भरणपोषण करने के लिए उत्तरदायी है चाहे वह कठिनाई में ही क्यों न हो, तथा
(iii) पुत्र यद्यपि निर्धन है फिर भी कुछ अर्थोपार्जन करता है तो वह अपने निर्धन पिता का जो कि कुछ नहीं कमाता है, का भरणपोषण करने के लिए आबद्ध है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कतिपय अवस्थाओं में और सीमा तक पौत्र एवं पौत्रियाँ अपने निर्धन पितामह एवं मातामह का भरणपोषण करने के लिए उत्तरदायी है। पुत्र अपनी सौतेली माता का भरणपोषण करने के लिए तब उत्तरदायी होता है जब पिता गरीब अर्थात् निर्धन हो ।
(4) अन्य सम्बन्धी - अन्य सम्बन्धियों से अभिप्राय यहाँ ऐसे व्यक्तियों से है जो प्रतिषिद्ध नातेदारी के भीतर आते हैं। ऐसे व्यक्तियों का भरणपोषण करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है बशर्ते कि वे स्वयं निर्धन न हो। लेकिन भरणपोषण का यह दायित्व उसी सीमा तक है जिस सीमा तक ऐसे व्यक्ति सम्बन्धियों की मृत्यु पर उनकी सम्पत्ति उत्तराधिकार में पाते हैं।
पिता अपनी पुत्रवधु का भरणपोषण करने के लिए उत्तरदायी नहीं माना गया है। (मोहम्मद अब्दुल बनाम खेरुन्निसा, ए.आई.आर. 1950 बम्बई 245)
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