भारत में विधिक सहायता सेवायें आवश्यक है ?Legal Aid Services Necessary in India? Law's Study 📖
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प्रश्न- क्या आप इस बात से सहमत है कि भारत में विधिक सहायता सेवायें आवश्यक है ? समझाइये ।
[ [ Do you agree that Legal Aid Services are necessary in India ? Explain . ]
उत्तर - भारत गाँवों का देश है । इसकी अधिकांश आबादी गाँवों में निवास करती है जो न केवल अशिक्षित अथवा निरक्षर है अपितु निर्धन भी है । अधिकांश लोगों के सामने दो समय की रोटी की भी समस्या है । अतिवृष्टि अथवा अनावृष्टि से देश का अधिकांश भाग काल की चपेट में रहता है । यही कारण है कि यहाँ के बहुसंख्यक लोगों का ध्यान सदैव उपजीविका कमाने में लगा रहता है ।
इसके साथ ही साथ अशिक्षा एवं अज्ञानता के कारण यहाँ के लोग अंधविश्वासों एवं कुरीतियों से जकड़े हुए हैं । शुभ - अशुभ को वे अपने पूर्व - जन्म का फल मानते हैं । यही कारण है कि अन्याय को सहन करने की हमारी आदत सी बन गई है । लोग अन्याय को मौन से सहन कर लेते हैं । न्यायालय में दस्तक उनके सोच के बाहर का विषय है ।
फिर विधि की अज्ञानता भी उनके लिए न्याय के मार्ग में एक बाधा है । आम आदमी अपने अधिकारों के प्रति सजग नहीं है । अधिकारों के प्रति न उनमें चेतना है और न जागृति ।
यही कुछ कारण है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 50 वर्षों के बाद भी समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग न्याय से वंचित रहा है । न्याय उनके लिए एक “ मृगतृष्णा " रहा है । वे न्याय के निकट नहीं आ पाये हैं । न्याय के मार्ग में-
( i ) निर्धनता ;
( ii ) अशिक्षा ,
( iii ) विधि की अज्ञानता ;
( iv ) चेतना का अभाव ;
( v ) अंधविश्वास एवं कुरीतियाँ ; बाधक रही हैं ।
निर्धन व्यक्ति निर्धनता अर्थात् अर्थाभाव के कारण न्यायालय की पेढ़ी तक नहीं पहुंच पाता है । फिर हमारी न्यायिक व्यवस्था भी कुछ ऐसी रही है कि ऐसे व्यक्तियों की ओर से अन्य व्यक्तियों को न्यायालय में दस्तक देने का अधिकार नहीं रहा है । संविधान के अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत रिट याचिका केवल ऐसे व्यक्ति द्वारा ही प्रस्तुत की जा सकती थी जिसके अधिकारों का अतिक्रमण हुआ हो । ( कल्याणसिंह बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश , ए.आई.आर. 1962 एस.सी. 1183 तथा इन रि मेटर ऑफ मधु लिम्ये , ए.आई.आर. 1969 एस.सी. 1014 ) यह सभी व्यवस्थायें हमारे विधि वेताओं न्यायविदों के लिए सोच एवं चिन्तन का विषय बन गया ।
एक तरफ हमारा संविधान
( क ) भारत में समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना ;
( ख ) सामाजिक , आर्थिक और राजनैतिक न्याय ;
( ग ) विचार , अभिव्यक्ति , विश्वास , धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता ; ( घ ) प्रतिष्ठा और अवसर की समता ; समझी जायेगी । आदि का अवगाहन करता है और दूसरी तरफ जन साधारण के लिए न्याय सुलभ नहीं हो तो यह एक विडम्बना ही
संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का मूल अधिकार प्रदान किया गया है । संविधान के अनुच्छेद 21 में यह कहा गया है कि--
किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वाधीनता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा , अन्यथा नहीं ।
" स्पष्ट है कि प्रत्येक व्यक्ति को जीने का अधिकार है । जीने का अधिकार ही नहीं ; अपितु सम्मानपूर्वक और मानव गरिमा युक्त जीवन जीने का अधिकार है । ' खड़क सिंह बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश ' ( ए.आई.आर. 1963 एस.सी. 1295 ) के मामले में भी उच्चत्तम न्यायालय द्वारा यही अभिनिर्धारित किया गया है कि- " जीने के अधिकार से अभिप्राय केवल पशुवत जीने से नहीं ; अपितु सम्मानपूर्वक जीवन जीने के अधिकार से है ।
" लेकिन निर्धनता , अशिक्षा एवं अज्ञानता के कारण यह सारी अवधारणायें संविधान के पन्नों में सिमट कर रह गई ।
इन अवधारणाओं एवं परिकल्पनाओं को फलीभूत करने के लिए हमारे विधि वेत्ताओं एवं न्यायविदों का इस ओर ध्यान गया । उन्होंने यह महसूस किया कि भारत के लोगों को ; और विशेष रूप से समाज के कमजोर वर्गों को सस्ता एवं त्वरित न्याय सुलभ होना चाहिये । इसके बिना संविधान की सारी अवधारणायें धूमिल हो जायेगी । इसी चिन्तन ने संविधान के नये अनुच्छेद 39 क को जन्म दिया । अनुच्छेद 39 क में अब यह व्यवस्था की गई कि- " राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक तंत्र इस प्रकार काम करें कि समान के आधार पर न्याय सुलभ हो और वह , विशिष्टतया , यह सुनिश्चित करने के लिए कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाये , उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा या किसी अन्य रीति से निःशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा ।
" ( The State shall secure that the operation of the legal system promotes justice , on a basis of equal opportunity , and shall , in particular , provide free legal aid , by suitable legislation or schemes or in any other way , to esnsure that opportunities for securing justice are not denied to any citizen by reason of economic or other disabilities . ) संविधान की इस व्यवस्था ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत के लोगों को निःशुल्क विधिक सहायता ( Free legal aid ) की आवश्यकता रही है । इसके बिना उसकी सारी स्वतंत्रतायें अर्थहीन है । इस धारणा की अभिपुष्टि हमारे शीर्षस्थ न्यायालयों द्वारा भी की गई । उच्चत्तम न्यायालय ने ' एम.एच.हॉस्कट बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र ' ( ए.आई.आर. 1978 एस.सी. 1548 ) के मामले में यह स्पष्ट किया कि- " निर्धन व्यक्ति को निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध कराना राज्य का कर्त्तव्य है , अनुकम्पा नहीं ।
यह निर्णय भी इस बात का संकेत देता है कि भारत में विधिक सहायता सेवाओं ( legal aid services ) की आवश्यकता रही है । इस तथ्य की पुष्टि ' विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम , 1987 ' ( The Legal Services Authorities Act ) से होती है । जिसका एक मुख्य लक्ष्य समाज के कमजोर वर्गों को न्याय के समान अवसर एवं निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध कराना रहा है ।
लेकिन यहाँ यह उल्लेखनीय है कि विधिक सहायता की अपेक्षा करने वाले व्यक्ति का विधिक सहायता प्राप्त करने का पात्र होना आवश्यक है । किसी का महिला होना मात्र विधिक सहायता की पात्रता नहीं है । ( Mere ground that petitioner is a woman , she is not entitled to legal aid . ) ( मसरथ जहाँ बेगम बनाम मसूद श्रीमती हासिम सली , ए.आई.आर. 2011 एन.ओ.सी. 212 आन्ध्रप्रदेश )
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