कम्पनी की परिभाषा | Define Company | Company Law | Law's Study 📖



 

कम्पनी की परिभाषा | Define Company | Company Law


कम्पनी विधि 


' कम्पनी ' की परिभाषा दीजिये । कम्पनी विधि के अन्तर्गत कम्पनी की विभिन्न विशेषताओं की विवेचना कीजिये । [ Define ' Company ' . Discuss the various characteristics of a company under the Company Law . 

अथवा

 क्या कम्पनी एक विधिक व्यक्ति है ? इसकी क्या विशेषतायें हैं ?

 ( Is Company a legal person ? What are its various characteristics ? 

  

 शब्द ' कम्पनी ' अत्यधिक प्रचलित एवं प्रत्येक व्यक्ति के लिए जाना - पहचाना शब्द है । सामान्यतः इसका अर्थ किसी प्रयोजन विशेष के लिए संयोजित व्यक्तियों के समुदाय से लिया जाता है । जब अनेक व्यक्ति मिलकर किसी व्यवसाय को चलाने का अनुबन्ध करते हैं तो जन साधारण में ऐसे समूह को कम्पनी समझ लिया जाता है । विधिक दृष्टि से इसकी परिभाषा कुछ भिन्न हो सकती है । परिभाषा कम्पनी अधिनियम , 2013 की धारा 2 

( 20 ) के अनुसार- " कम्पनी से इस अधिनियम के या पूर्व कम्पनी विधि के अधीन निगमित कोई कम्पनी अभिप्रेत है।''

Company means a company Incorporated under this Act on under any previous company law . ) 


लेकिन यह परिभाषा न तो पूर्ण है और न ही सन्तोषजनक , क्योंकि इससे कम्पनी के वास्तविक अर्थ एवं स्वरूप का बोध नहीं होता है । ' कम्पनी ' के अर्थ को आत्मसात् करने के लिए यहाँ विभिन्न विधिवेत्ताओं एवं न्यायविदों की परिभाषाओं का उल्लेख करना समीचीन होगा । 


न्यायाधीश लिण्डले ( Lindley J. ) के अनुसार- “ कम्पनी ऐसे अनेक व्यक्तियों का एक संघ या समुदाय है जो एक संयुक्त कोष में अपने धन या धन के  बराबर किसी अन्य सम्पत्ति का अंशदान करते हैं और किसी सामान्य उद्देश्य या प्रयोजन के लिए उसका उपयोग करते हैं । "

 ( Company is an association of many persons who contribute money or money's worth to a common stock and employ it for a common purpose . ) 


न्यायाधीश मार्शल ( Marshal J. ) के अनुसार– “ कम्पनी एक अदृश्य , अमूर्त और कृत्रिम व्यक्ति है जिसका अस्तित्व केवल विधिक दृष्टि में है । विधि द्वारा सृजित होने के कारण इसकी वे ही विशेषतायें होती हैं जो उसे उत्पन्न करने वाले अधिकार पत्र द्वारा प्रदत्त की जाती हैं । "


 ( Company is a person artificial , invisible , intangible and existing only in the eyes of law . Being a mere creation of law , it possesses only those properties which the charter of its creation confer upon it either expressly or as incidental to its very existence . )


हेल्सबरी ( Halsbury ) के अनुसार- " कम्पनी से अभिप्राय एक विशिष्ट नामकरण के अधीन अनेक व्यक्तियों के ऐसे समूह से है जो एक निकाय के रूप में संगठित हो गये हैं , जिन्हें एक कृत्रिम स्वरूप में शाश्वत उत्तराधिकार प्राप्त है और जिसे विधि की नीति द्वारा अनेक अर्थों में , विशेष रूप से सम्पत्ति को ग्रहण करने और स्वीकार करने के सम्बन्ध में , संविदा के आभारों के सम्बन्ध और वादकरण के सम्बन्ध में विशेषाधिकारों एवं उन्मुक्तियों का उपयोग करने के सम्बन्ध में उस समूह के संस्थापन के प्रारूप के अनुसार अधिक या कम विस्तार तक विविध प्रकार के राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग करने अथवा या तो उसके सृजन के समय या उसके अस्तित्व में आने के पश्चात किसी भी समय जो शक्तियाँ प्रदत्त की गई हैं , उनका प्रयोग करने के सम्बन्ध में, एक व्यक्ति के रूप में कार्य करने की क्षमता प्रदान की गई है।''

( Company is a association of many individuals united into one body under a special denomination having perpetual succession under an artificial form and vested by the policy of the law with the capacity of acting in several respects as an individual particularly of taking and granting property of contracting obligations and of suing and being sued , enjoying privileges and immunities in common , and of exercising a variety of political rights , more or less , extensive according to the designs of its institution or the powers conferred upon it , either at the time of its creation or at any subsequent period of its existence . ) 


डॉ . स्प्रिंगल ( Dr. Spriangel ) के शब्दों में— “ निगम राज्य की एक सृजना है जिसका अस्तित्व उन व्यक्तियों से अलग होता है जो उसकी पूँजी अथवा अन्य व्यक्तियों से अलग होता है जो उसकी पूँजी अथवा अन्य प्रतिभूतियों के स्वामी होते है । " 

( The corporation is the creation of state and possesses an entity separate and disitinct from the person owing its stock or their other securities . )


 न्यायमूर्ति बकले ( Buckley J. ) के अनुसार शब्द ' कम्पनी ' में दो बातें निहित हैं— 

( 1 ) कम्पनी रूपी संघ या समुदाय के सदस्य इतनी अधिक संख्या में होते हैं कि उसे फर्म या भागीदारी ( firm or partnerships ) नहीं कहा जा सकता ; तथा 

( 2 ) इसके सदस्य या सदस्यों के हित या हितों के अन्तरण के लिए अन्य सदस्यों की सहमति आवश्यक नहीं होती । 


हेने ( Heney ) के अनुसार , " जोइन्ट स्टॉक कम्पनी लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से निर्मित एक ऐच्छिक संस्था है , जिसकी पूँजी अन्तरणीय अंशों में विभक्त होती है तथा जिसके स्वामित्व के लिए सदस्यता आवश्यक है । " 


एम . एम . शाह ( M.M. Shah ) के अनुसार , " कम्पनी शब्द से आशय सामान्य उद्देश्य के लिए निर्मित अनेक व्यक्तियों के एक संघ से है । इसमें दो मत्त्वपूर्ण तत्व समाविष्ट हैं-

प्रथम यह कि संघ के सदस्य इतने अधिक होते हैं कि उसे सही अर्थ में फर्म या भागीदारी नहीं कहा जा सकता और द्वितीय यह कि प्रत्येक सदस्य संघ में अपने हित को अन्य सदस्यों की सहमति के बिना अन्तरित कर सकता है । ऐसे संघ को विधि के अन्तर्गत निगमित किया जा सकता है जिसके फलस्वरूप यह एक निगमित संस्था हो जाती है । उसकी एक सामान्य मुहर होती है । उसका अपने सदस्यों से भिन्न वैधानिक व्यक्तित्व होता है । "


 उपरोक्त सभी परिभाषाओं का निष्कर्ष यह है कि कम्पनी अनेक व्यक्तियों का एक ऐसा स्वैच्छिक संघ या समुदाय है जिसका सृजन किसी विशिष्ट उद्देश्य या प्रयोजन के लिए किया जाता है तथा इसके प्रत्येक सदस्य द्वारा सामान्य कोष में धन या धन समरूप अन्य सम्पत्ति का अंशदान किया जाता है । विधि की दृष्टि में यह एक कृत्रिम व्यक्ति अथवा निकाय है ।

 विशेषतायें

 कम्पनी की विभिन्न परिभाषाओं से इसकी निम्नांकित विशेषतायें परिलक्षित होती हैं ; यथा— 

( 1 ) स्वैच्छिक संघ

 कम्पनी की पहली विशेषता इसका एक स्वैच्छिक संघ अथवा समुदाय ( Voluntary Association ) होना है । इसका निर्माण अथवा सृजन संविदा के अन्तर्गत किया जाता है जिसमें व्यक्ति अपनी स्वतन्त्र सम्मति से सम्मिलित होते हैं । कम्पनी का सदस्य बनने की किसी पर बाध्यता नहीं होती । 

( 2 ) स्वतन्त्र विधिक अस्तित्व 

कम्पनी की दूसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता उसका स्वतन्त्र अथवा पृथक् विधिक अस्तित्व ( Independent or seperate legal entity ) होना है । कम्पनी का अस्तित्व अपने सदस्यों के अस्तित्व से पृथक् होता है । यही कारण है कि कम्पनी के अधिकार एवं दायित्व भी उन लोगों से पृथक् होते हैं जिनके द्वारा कम्पनी का सृजन हुआ है । 


प्रो . गोवर ( Prof. Gower ) के अनुसार , " निगमित व्यक्तित्व का मुख्य लक्षण उसका विधिक अस्तित्व है जो उसके सदस्यों से भिन्न एवं पृथक् है । अतः यह एक कृत्रिम व्यक्ति है , न कि प्राकृतिक या जीवित व्यक्ति । " ( दि प्रिंसिपल्स ऑफ मॉडर्न कम्पनी लॉ ) 

इस सम्बन्ध में ' सोलोमन बनाम सोलोमन एण्ड कम्पनी ' ( 1897 ए . सी . 22 ) का एक उद्धरणीय मामला है । इसमें कम्पनी का एक पृथक् अस्तित्व माना गया है ।

इसमें सोलोमन नाम के व्यक्ति द्वारा ' सोलोमन एण्ड कम्पनी ' के नाम से एक कम्पनी का गठन ( निर्माण ) किया गया था जिसके सदस्य सोलोमन के परिजन थे । कालान्तर में आर्थिक स्थिति बिगड़ जाने से कम्पनी को समाप्त करना पड़ गया । उस समय कम्पनी के दो प्रकार के ऋणपत्रधारी थे , स्वयं सोलोमन एवं अन्य व्यक्ति । जब ऋण के चुकारे का प्रश्न उठा तब लार्ड सभा ने यह कहा कि –सोलोमन तथा सोलोमन एण्ड कम्पनी दो पृथक् - पृथक् व्यक्तित्व हैं । सोलोमन एण्ड कम्पनी द्वारा ऋण का चुकारा दो प्रकार के लेनदारों को किया जाना है- प्रथमतः सोलोमन को जिसके पास बन्धक सहित ऋणपत्र है और द्वितीयतः सामान्य लेनदारों को जिनके पास साधारण ऋणपत्र हैं । विधि की दृष्टि में बन्धक सहित ऋणपत्रधारियों को अपना ऋण वसूल करने का पहला अधिकार होता है । अतः सोलोमन को यह पहला अधिकार है कि वह कम्पनी की सम्पत्ति से अपना ऋण वसूल करें और सोलोमन के ऋण का चुकारा हो जाने के बाद यदि कम्पनी के पास कोई सम्पत्ति शेष रहती है तो अन्य सामान्य लेनदार उससे अपने ऋण की वसूली कर सकते हैं । 


लार्ड सभा ने सामान्य लेनदारों के इस तर्क को नहीं माना कि सोलोमन तथा सोलोमन एण्ड कम्पनी दोनों एक ही हैं और उनमें कोई अन्तर नहीं है । 


कालान्तर में ‘ ली बनाम लीज एयर फार्मिंग लि . ' ( 1961 ए.सी. 12 प्रिवी कौंसिल ) के मामले में लार्ड सभा द्वारा सोलोमन के मामले में प्रतिपादित सिद्धान्त का समर्थन एवं अनुसरण किया गया । 

' स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया बनाम सी.टी.ओ. ' ( ए.आई.आर. 1963 एस . सी . 1811 ) के मामले में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि— कम्पनी का अस्तित्व कम्पनी के सदस्यों से भिन्न एवं पृथक् होता है । कम्पनी का निर्माण करने वाले व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को सामूहिक तौर पर कम्पनी  प्रस्तुत नहीं करते हैं ।

मै . इलेक्ट्रोनिक्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड बनाम सेक्रेटरी , रेवेन्यु डिपार्टमेन्ट , आंध्रप्रदेश ( ए.आई.आर. 1999 एस . सी . 1734 ) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि - कम्पनी तथा उसके अंशधारी के बीच सुस्पष्ट विभेद किया जाना चाहिए चाहे वह अंशधारी मात्र एक ही हो या वह केन्द्रीय सरकार अथवा राज्य सरकार हो । विधि की दृष्टि से कम्पनी का विधिक अस्तित्व उसके अंशधारी की विधिक प्रास्थिति अथवा उस प्रास्थिति से भिन्न होता है जो उसके अंश धारण करते हैं । 

( 3 ) शाश्वत उत्तराधिकार 

कम्पनी की तीसरी विशेषता उसका शाश्वत उत्तराधिकार ( Perpetual Succession ) है।

इसका स्थायी अस्तित्व है । किसी सदस्य द्वारा सदस्यता त्याग दिये जाने , उसके दिवालिया हो जाने , उसकी मृत्यु हो जाने या अन्यथा स्थान रिक्त हो जाने पर कम्पनी का अस्तित्व समाप्त नहीं होता है । 

कम्पनी एक ऐसी बहती हुई नदी के समान है जिसमें अस्थायी पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता रहता है लेकिन नदी स्थायी बनी रहती है ।

 प्रो . गोवर ( Prof. Gower ) ने इसका एक सुन्दर दृष्टान्त देते हुए कहा है कि युद्धकाल में किसी प्राइवेट कम्पनी के सभी सदस्य बम द्वारा उस समय मारे गये जब कम्पनी की बैठक चल रही थी , फिर भी कम्पनी का अस्तित्व बना रहा तथा हाइड्रोजन बम भी उसे समाप्त नहीं कर सका । 

( 4 ) सामान्य मुहर 

कम्पनी की चौथी विशेषता उसकी एक सामान्य मुहर ( Common Seal ) का होना है । सामान्य मुहर से ही कम्पनी के सारे कार्य सम्पन्न किये जाते हैं । कम्पनी की सामान्य मुहर पर किये गये संचालक के हस्ताक्षरों से उसके कार्य व दायित्व कम्पनी के कार्य व दायित्व समझे जाते हैं । यद्यपि कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति है , लेकिन उसके समस्त कार्य सामान्य मुहर के बल पर प्राकृतिक व्यक्तियों द्वारा किये जाते हैं । 

( 5 ) परिसीमित दायित्व

 कम्पनी की पाँचवीं विशेषता उसके सदस्यों का परिसीमित दायित्व ( limited liability ) होना है । कम्पनी के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा क्रय किये गये अंशों के मूल्य तक सीमित रहता है या यों कह सकते हैं कि कम्पनी के अंशधारियों ( Shareholders ) का दायित्व केवल अपने अंश का मूल्य चुकाने तक ही होता है । 

( 6 ) अंशों का अन्तरणीय होना

 कम्पनी की छठी विशेषता उसके सदस्यों के अंशों का अन्तरणीय : ( transferable ) होना है । कम्पनी अधिनियम , 2013 की धारा 44 में यह कहा गया है कि - " किसी कम्पनी के किसी सदस्य के अंश या ऋणपत्र या अन्य हित कम्पनी के अनुच्छेदों द्वारा उपबंधित रीति में अन्तरणीय जंगम सम्पत्ति होंगे । 

" यदि अंशधारियों द्वारा किसी करार के अधीन कोई प्रतिबन्ध सुनिश्चित किये जाते हैं तो उनका संगम अनुच्छेदों के अनुरूप होना आवश्यक है । यदि वे संगम अनुच्छेदों के प्रतिकूल है तो शून्य होंगे और कम्पनी या अंशधारी उनसे आबद्धकर नहीं होंगे । ( बी.बी. रंगराज बनाम बी . बी . गोपालकृष्णन् , 1992 एस . सी . सी . 160 )

 अन्तरण का पर्याप्त प्रतिफल के एवज में होना भी अपेक्षित है । ( जॉन टिन्सन एण्ड कं . बनाम सुरजीत मल्हान , ए.आई.आर. 1997 एस.सी. 1411 )

( 7 ) वाद संस्थित किया जाना

 कम्पनी की सातवीं विशेषता कम्पनी के विरुद्ध एवं कम्पनी के द्वारा वाद संस्थित किया जा सकना है । यदि कम्पनी द्वारा किसी व्यक्ति के हितों या अधिकारों का अतिलंघन किया जाता है तो उसके विरुद्ध वादं लाया जा सकता है और यदि किसी व्यक्ति द्वारा कम्पनी के अधिकारों का अतिलंघन या अतिक्रमण किया जाता है तो कम्पनी द्वारा ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध वाद लाया जा सकता है । 

( 8 ) नागरिकता

 यह भी कम्पनी का एक लक्षण या विशेषता ही है कि वह ' नागरिक ' ( Citizen ) नहीं है और इसीलिये उसे संविधान के अनुच्छेद 19 का संरक्षण प्राप्त नहीं है । 

' स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन बनाम सी . टी . ओ . ' ( ए.आई.आर. 1963 एस . सी . 1811 ) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि —– कम्पनी नागरिक नहीं है ; अतः उसके विरुद्ध अंशधारियों द्वारा मूल अधिकारों का प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता है ।


 ' टाटा इंजीनियरिंग एण्ड लोकोमोटिव कं . लि . बनाम स्टेट ऑफ बिहार ' ( ए.आई.आर. 1965 एस . सी . 40 ) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि कम्पनी नागरिक नहीं है और इसीलिए उसे अनुच्छेद 19 का संरक्षण प्राप्त नहीं है । 


लेकिन बैनेट कोलमेन एण्ड कम्पनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया ( ए.आई.आर. 1973 एस . सी . 106 ) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा कम्पनी ' के अंशधारियों को संविधान के अनुच्छेद 19 के संरक्षण का हकदार माना गया है । उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि एक नागरिक के व्यक्तिगत अधिकार कम्पनी में अंशधारी बनने से समाप्त नहीं हो जाते हैं । - 

ठीक ऐसा ही मत आर.सी. कूपर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया ( ए.आई.आर. 1970 एस . सी . 564 ) के मामले में अभिव्यक्त किया गया था ।

 9. केन्द्रीकृत प्रबन्ध 

कम्पनी का प्रबन्ध निदेशकों एवं योग्य व कुशल अधिकारियों तथा व्यक्तियों के हाथों में सुरक्षित रहता है । निदेशकों द्वारा ही साधारण बैठकों में कम्पनी की नीतियाँ निर्धारित की जाती हैं । निदेशक समय - समय पर बदलते रहते हैं । अक्षमता एवं कदाचार के आधार पर निदेशकों को कार्यकाल की समाप्ति से पूर्व भी हटाया जा सकता है ।

कम्पनी अधिनियम , 2013 की धारा 149 के अन्तर्गत निदेशकों की न्यूनतम संख्या तीन रखी गई है । एकल व्यक्ति कम्पनी ( One Person Company ) इसका अपवाद है । 

10. स्थायित्व एवं स्थिरता

 कम्पनी की एक विशेषता यह भी है कि कम्पनी की पूँजी स्थायी एवं स्थिर रहती है , क्योंकि - 

( 1 ) अंशों एवं ऋणपत्रों का कम मूल्य होने से सामान्य व्यक्ति भी पूँजी का विनिमय कर सकता है । 

( 2 ) उसे हानि की सम्भावना कम रहती है , तथा 

( 3 ) अंशों एवं ऋणपत्रों को बेचकर अपनी सम्पत्ति को कभी भी वापस प्राप्त किया जा सकता है ।

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