मध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम,1996की पृष्ठभूमि एवं उद्देश्य Objects of Arbitration and Conciliation Act
मध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम,1996की पृष्ठभूमि एवं उद्देश्य Objects of Arbitration and Conciliation Act
मध्यस्थता , सुलह एवं माध्यस्थम् [ Mediation , Conciliation and Arbitration ]
माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम , 1996 की संक्षिप्त पृष्ठभूमि बताते हुए इसके उद्देश्यों पर प्रकाश डालिये ।
[ Discuss the background and objects of Arbitration and Conciliation Act , 1996. ]
माध्यस्थम् एवं सुलह के माध्यम से विवादों का निपटारा करने की प्रथा अतीत से चली आ रही हैं । गाँवों में चौपाल पर या प्रतिष्ठित लोगों की मध्यस्थता से विवादों का निपटारा होता रहा है । औपचारिक न्याय व्यवस्था के श्रीगणेश से पूर्व मध्यस्थता एवं सुलह ही न्याय व्यवस्था के मुख्य स्रोत थे । मुख्य न्यायाधीश सर राबर्ट रेमण्ड ने भी यह कहा है कि माध्यस्थम् विवाद के दोनों पक्षों के बीच उनकी पारस्परिक सहमति से चयनित व्यक्ति द्वारा मामले के निपटारे का एक सुलभ तरीका है जिसमें ऐसा चयनित व्यक्ति न्यायाधीश अर्थात् निर्णायक का कार्य करता है ।
धीरे - धीरे पंचायतें बनी और पाँच व्यक्तियों का समूह न्याय प्रदान करने का काम करने लगा । कालान्तर में इसी व्यवस्था ने माध्यस्थम् का नाम ग्रहण किया । | विभिन्न प्रान्तों के विनियमों अर्थात् बंगाल , चेन्नई एवं मुम्बई के विनियमों में इस व्यवस्था को स्थान दिया गया । सन् 1793 के बंगाल विनियम द्वारा विवादों को पक्षकारों की सहमति से माध्यस्थ या अधिनिर्णायकों को सौंपने की व्यवस्था की गई । आगे चलकर सिविल प्रक्रिया संहिता , 1859 एवं माध्यस्थम् अधिनियम , 1899 में प्रथम बार माध्यस्थ ( Arbitrator ) की नियुक्ति के बारे में प्रावधान किया गया । 1822 के बंगाल विनियम में राजस्व न्यायालयों को भी मध्यस्थता के अधिकार दिये गये ।
शनैः शनैः माध्यस्थम् का प्रचलन बढ़ता गया । सन् 1940 में माध्यस्थम् अधिनियम बना जिसे सम्पूर्ण भारत में समान रूप लागू किया गया । धीरे - धीरे यह अधिनियम भी आलोचना का शिकार बना और इसकी कमियाँ सामने आने लगी । कि इस अधिनियम के स्थान पर सन् 1996 में एक नया अधिनियम पारित किया गया जिसे ' माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम ' ( Arbitration and Conciliation Act ) का नाम दिया गया ।
पुराने अधिनियम की कमियाँ
ज्यों - ज्यों व्यापार व्यवसाय का क्षेत्र बढ़ता गया त्यों - त्यों माध्यस्थम् का दायरा भी बढ़ता गया । जब अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की जड़े पाँव पसारती गई तो सन् 1940 का माध्यस्थम् अधिनियम अपनी उपयोगिता खोने लगा ; क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक विवादों के लिए इस अधिनियम में कोई व्यवस्था नहीं थी । इसी प्रकार की और अनेक कमियाँ इस अधिनियम में थी , जैसे
( i ) मौखिक माध्यस्थम् करार अर्थात् सन् 1940 के अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार माध्यस्थम् करार मौखिक भी हो सकता था ।
( ii ) विदेशी पंचाट को प्रवर्तित कराने की इस अधिनियम में कोई व्यवस्था नहीं थी ।
( iii ) सुलह ( Conciliation ) के बारे में इस अधिनियम में प्रावधान नहीं था ।
( iv ) इस अधिनियम के अन्तर्गत माध्यस्थम् पंचाट उसी न्यायालय में दाखिल किया जा सकता था जिस न्यायालय को विवादग्रस्त विषय - वस्तु को एक वाद के तौर पर सुनने की अधिकारिता थी ।
( v ) माध्यस्थम् करार की परिभाषा पूर्ण एवं स्पष्ट नहीं थी ।
( vi ) इस अधिनियम में कोई विवाद माध्यस्थम् को सौंपने के लिए न्यायालय से अनुरोध करने की व्यवस्था थी चाहे उस न्यायालय में विषय - वस्तु के सम्बन्ध में कोई वाद लम्बित नहीं हो ।
( vii ) इस अधिनियम में निर्णायक ( Umpire ) की नियुक्ति करने का प्रावधान था ।
( viii ) इसमें माध्यस्थ के प्राधिकार को वापस लेने का अधिकार केवल न्यायालय को ही था ।
( ix ) इस अधिनियम में माध्यस्थ को अन्तरिम आदेश पारित करने का अधिकार नहीं था ।
( x ) माध्यस्थम् का स्थान पक्षकारों के करार द्वारा ही निर्धारित किया जा सकता था ।
( xi ) माध्यस्थम् कार्यवाहियों की भाषा के सम्बन्ध में इस अधिनियम में कोई प्रावधान नहीं था ।
( xii ) इस अधिनियम में ' मौखिक सुनवाई के बारे में भी कोई व्यवस्था नहीं थी ।
( xiii ) इसमें दस्तावेजों के प्रस्तुतीकरण के लिए आदेश करने हेतु न्यायालय से अनुरोध करने बाबत कोई उपबन्ध नहीं था ।
( xiv ) इस अधिनियम के उपबन्धों के अनुसार पंचाट को न्यायालय में दाखिल कर उस पर न्यायालय की डिक्री प्राप्त किया जाना आवश्यक था । किसी पंचाट की लिपिकीय या गणितीय भूल में सुधार करने का अधिकार केवल न्यायालय को ही था , माध्यस्थम् अधिकरण को नहीं ।
( xv ) इस अधिनियम में पंचाट को अन्य आधारों पर भी अवैध घोषित किये जाने का प्रावधान था जैसा कि उसमें प्रयुक्त शब्द ' या अन्यथा अवैध है ' से स्पष्ट होता है ।
( xvi ) इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार न्यायालय द्वारा माध्यस्थम् पंचाट में संशोधन किया जा सकता था ।
( xvii ) इस अधिनियम में न्यायालय की अधिकारिता के बारे में विस्तृत प्रावधान किया गया था ।
( xviii ) सन् 1940 के अधिनियम में विदेशी पंचाट ' के सम्बन्ध में कोई प्रावधान नहीं था ।
( xix ) इस अधिनियम में ' सुलह ' ( Conciliation ) को सांविधिक मान्यता प्रदान नहीं की गई थी ।
इस प्रकार सन् 1940 के माध्यस्थम् अधिनियम में अनेक कमियाँ थी और इन्हीं कमियों के कारण इस अधिनियम को निरसित कर सन् 1996 को नया अधिनियम पारित किया गया । |
नये अधिनियम के उद्देश्य ,
सन् 1996 के माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम को पारित किये जाने के पीछे मुख्यतया निम्नांकित उद्देश्य रहे हैं
( 1 ) अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम ( International Commercial Arbitration ) तथा सुलह को सम्मिलित करना ;
( 2 ) माध्यस्थम् कार्यवाहियों के लिए ऐसी प्रक्रिया सुनिश्चित करना जो कृजु , त्वरित एवं न्यायसंगत हो ;
( 3 ) माध्यस्थम् पंचाट के कारण दिया जाना , ताकि यह लगे कि पंचाट • स्वतन्त्र एवं निप्पक्ष भाव से दिया गया है ;
( 4 ) माध्यस्थम् अधिकरण की अधिकारिता सुनिश्चित करना तथा यह निर्धारित करना कि अधिकरण अपनी सीमाओं एवं अधिकारिता में रहकर कार्य करें ;
( 5 ) माध्यस्थम् कार्यवाहियों में न्यायालयों की पर्यवेक्षीय भूमिका ( Supervisory role ) तय करना ;
( 6 ) विवादों के हल के लिए मध्यस्थता एवं सुलह जैसे वैकल्पिक उपायों को प्रोत्साहित करना ;
( 7 ) पंचाट को डिक्री ( Decree ) का स्वरूप प्रदान करना तथा उसी के अनुरूप उसका प्रवर्तन सुनिश्चित करना ;
( 8 ) ' सुलह ' ( Conciliation ) को भी माध्यस्थम् पंचाट की तरह मान्यता प्रदान करना ;
( 9 ) विदेशी पंचाटों के प्रवर्तन विषयक उपबन्ध बनाना ; आदि ।
नये अधिनियम में पुराने अधिनियम की कमियों को दूर करने का प्रयास
सन् 1996 के माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम में माध्यस्थम् अधिनियम , 1940 की कमियों को दूर करने का प्रयास किया गया ; यथा
( 1 ) मौखिक माध्यस्थम् करार की व्यवस्था को समाप्त कर ऐसे करार का लिखित होना आवश्यक बनाया गया था ;
( 2 ) माध्यस्थम् पंचाट को उसी न्यायालय में दाखिल करने की बाध्यता को समाप्त किया गया जिस न्यायालय को विवादित विषय - वस्तु को वाद के तौर पर सुनने की अधिकारिता हो ;
( 3 ) माध्यस्थम् करार की पूर्ण एवं स्पष्ट परिभाषा की गई ;
( 4 ) अब यह आवश्यक किया गया कि कोई विवाद माध्यस्थम् को सौंपने के लिए उस न्यायालय से तभी अनुरोध किया जा सकता है जब उसमें तद्विषयक मामला लम्बित हो ;
( 5 ) निर्णायक ( Umpire ) की नियुक्ति की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया ;
( 6 ) अब माध्यस्थ के प्राधिकार को वापस लेने का अधिकार विवाद में के पक्षकारों को भी दिया गया ;
( 7 ) माध्यस्थ को अन्तरिम आदेश ( Interim order ) पारित करने की । अधिकारिता दी गई .
( 8 ) अधिकरण को माध्यस्थम् के स्थान में परिवर्तन करने की शक्तियाँ प्रदत्त की गई ;
( 9 ) माध्यस्थम् कार्यवाहियों की भाषा ( Language ) के सम्बन्ध में समुचित ` प्रावधान किया गया ;
( 10 ) मौखिक सुनवाई की व्यवस्था की गई ;
( 11 ) पंचाट के अन्तिम हो जाने पर उसे डिक्री के समान मान्यता प्रदान की गई ।
( 12 ) पंचाट को अपास्त करने के आधार सुनिश्चित किये गये ;
( 13 ) विदेशी पंचाट के प्रवर्तन की व्यवस्था की गई ;
( 14 ) अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम् को स्थान दिया गया ;
( 15 ) सुलह जैसे वैकल्पिक उपचारों को प्रोत्साहन दिया गया ।
इस प्रकार नये अधिनियम को पूर्ण बनाने का पूरा प्रयास किया गया है । लेकिन अभी यह अपनी शैशव अवस्था में है । कालान्तर में यदि इसकी कोई व्यावहारिक कमियाँ प्रतीत होती हैं तो संशोधन की सम्भावनायें बन सकती हैं ।
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