विधि व्यवसाय करने का अधिकार किसको है ? Who are entitled to legal practice ? Law's Study 📖

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विधि व्यवसाय करने का अधिकार किसको है ? 
[ Who are entitled to legal practice ? ] 
अथवा - 
अधिवक्ता के विधि व्यवसाय के अधिकार की विवेचना कीजिए | 
[ Discuss the right to legal practice of an Advocate . ] 
अधिवक्ता अधिनियम , 1961 की धारा 29 में यह प्रावधान किया गया है कि विधि व्यवसाय करने के लिए हकदार व्यक्तियों का एक ही वर्ग होगा अर्थात् अधिवक्ता । " स्पष्ट है कि विधि व्यवसाय करने का हक केवल अधिवक्ताओं ( Advocates ) को है , अन्य किसी को नहीं । लेकिन एन . राम रेड्डी बनाम बार कौंसिल ऑफ स्टेट , आंध्र प्रदेश ( ए.आई.आर. 2002 आंध्र प्रदेश 484 ) के मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि - " अधिवक्ताओं का विधि व्यवसाय करने का अधिकार मात्र एक सांविधिक अधिकार है , मूल अधिकार नहीं । " ( Right to practice of an Advocate is merely a statutory right and not fundamental right ) कुछ भी हो , विधि व्यवसाय का अधिकार केवल अधिवक्ता वर्ग को प्राप्त है , अन्य किसी व्यक्ति या वर्ग को नहीं ।

अधिनियम की धारा 30 में यह उपबन्ध किया गया है कि इस अधिनियम के अन्य प्रावधानों के अधीन रहते हुए ऐसा व्यक्ति जिसका नाम अधिवक्ता नामावली ( Roll of Advocates ) में अंकित है 

( i ) उच्चतम न्यायालय , उच्च न्यायालय एवं अन्य अधीनस्थ न्यायालयों में , 

( ii ) किसी न्यायाधिकरण ( Tribunal ) अथवा साक्ष्य लेने हेतु विधिक रूप से प्राधिकृत व्यक्ति के समक्ष , और 

( iii ) ऐसे किसी व्यक्ति अथवा प्राधिकारी के समक्ष , जहाँ कोई अधिवक्ता तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन विधि व्यवसाय करने के लिए अधिकृत हो , विधि व्यवसाय करने का हकदार है । ' 

बलराज सिंह मलिक बनाम सुप्रीम कोर्ट ऑफ इण्डिया ' ( ए.आई.आर. 2012 दिल्ली 79 ) के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि उच्चतम न्यायालय अपने समक्ष वकालत करने तथा कार्य करने बाबत नियम बना सकता है । वह वकालत करने की शर्तें भी तय कर सकता है । 

इस प्रकार स्पष्ट है कि विधि व्यवसाय करने का अधिकार केवल अधिवक्ताओं को ही है बशर्ते कि उनका नाम विधिज्ञ परिषद् की अधिवक्ताओं की नामावली में प्रविष्ट हो । 

अधिनियम की धारा 33 में भी यह प्रावधान किया गया है कि ऐसा कोई भी व्यक्ति किसी न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में विधि व्यवसाय करने का हकदार नहीं होगा , जिसका नाम इस अधिनियम के अन्तर्गत अधिवक्ता नामावली में प्रविष्ट न किया गया हो । 

इसी प्रकार अधिनियम की धारा 45 में यह और प्रावधान किया गया है कि कोई भी ऐसा व्यक्ति जो इस अधिनियम के अन्तर्गत विधि व्यवसाय करने का हकदार नहीं है , किसी न्यायालय अथवा प्राधिकारी के समक्ष विधि व्यवसाय नहीं कर सकता हैं । यदि कोई व्यक्ति ऐसा विधि व्यवसाय करता है तो उसका यह कृत्य अवैधानिक माना जाएगा और उसे छः माह तक की अवधि के कारावास से दण्डित किया जा सकेगा । 

इस सम्बन्ध में नीलगिरी बार एसोसिएशन बनाम टी . के महालिंगम ( 1998 क्रि . लॉ रि . 247 एस.सी. ) का एक अच्छा प्रकरण है । इसमें प्रत्यर्थी के पास न तो विधि स्नातक की उपाधि थी और न ही उसका नाम अधिवक्ता की नामावली में अंकित था , फिर भी वह लगातार 8 वर्षों तक न्यायालयों में वकालत करता रहा । जब उसे अभियोजित किया गया तो उसने अपने अपराध को स्वीकार कर लिया ।

विचारण न्यायालय ने उसे दोषसिद्ध ठहराते हुए परिवीक्षा ( Probation ) का लाभ दिया । उच्च न्यायालय द्वारा भी परिवीक्षा के आदेश को यथावत् रखा गया । लेकिन जब मामला उच्चतम न्यायालय में पहुँचा तो उच्चतम न्यायालय ने प्रत्यर्थी को 6 माह के कठोर कारावास एवं 5000 / - रुपए के जुर्माने से दण्डित किया । जुर्माना जमा नहीं कराए जाने पर तीन माह के अतिरिक्त कारावास का आदेश दिया गया । न्यायालय ने कहा- " विधि व्यवसाय एक पवित्र एवं आदर्श व्यवसाय है । अधिवक्ताओं का समाज में विशिष्ट स्थान भी है । जनसाधारण में अधिवक्ताओं को आदर की दृष्टि से देखा जाता है । ऐसी स्थिति में यदि कोई व्यक्ति इस व्यवसाय की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाने वाला कोई कार्य करता है तो ऐसा व्यक्ति किसी भी प्रकार की सहानुभूति का पात्र नहीं रह जाता है । ऐसे व्यक्तियों के लिए कठोर दण्ड ही उचित दण्ड है ।

 " आनन्द कुमार शर्मा बनाम बार कौंसिल ऑफ इण्डिया ( ए.आई.आर. 2019 एस . सी . 1258 ) के मामले में ऐसे व्यक्ति को विधि व्यवसाय करने का पात्र नहीं माना गया जिसके द्वारा सनद प्राप्त करते समय सही तथ्यों को छिपाया गया था । वह सरकारी सेवा में तथा आपराधिक मामलों में लिप्त था । उसके नामांकन ( enrolement ) को निरस्त किया गया । 

ऐसा ही एक और मामला राजेन्द्र सिंह बनाम डॉ . सुरेन्द्र सिंह ( 1992 क्रि . लॉ . ज 3749 मध्यप्रदेश ) का है । इस मामले में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि- " विधि व्यवसाय एक आदर्श व्यवसाय है । अधिवक्ता को गरिमा , शालीनता एवं अनुशासन के साथ अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करना चाहिए । ' अधिवक्ताओं की अपनी एक आचार संहिता ( Code of conduct ) भी है । कोई व्यक्ति तब तक विधि व्यवसाय नहीं कर सकता है जब तक उसके पास निर्धारित शैक्षणिक योग्यता न हो और अधिवक्ता की नामावली में उसका नाम प्रविष्ट न हो । यदि कोई व्यक्ति जिसके पास न तो निर्धारित शैक्षणिक योग्यता है और न ही उसका नाम अधिवक्ता की नामावली में प्रविष्ट है , विधि व्यवसाय करता है तो उसे अधिनियम की धारा 45 के अन्तर्गत दण्डित किया जा सकता है । " .

'लक्ष्मीनारायण बनाम बार कौंसिल ऑफ इण्डिया ' ( ए.आई.आर. 1999 राजस्थान 325 ) के मामले में ऐसे व्यक्ति को अधिवक्ता की नामावली में नाम प्रविष्ट कराने का हकदार माना गया है जो विधि स्नातक है तथा किसी विश्वविद्यालय में विधि अधिकारी के रूप में कार्यरत है । Je 1 

इसी प्रकार परमानन्द शर्मा बनाम बार कौंसिल ऑफ राजस्थान ( ए.आई.आर. 1999 राजस्थान 171 ) के मामले में ऐसे व्यक्ति को विधिज्ञ परिषद् की नामावली में प्रविष्ट कराने का हकदार माना गया है जो केन्द्रीय या राज्य सरकार के अधीन विधि अधिकारी के रूप में कार्यरत रहा हो ।

सुरेन्द्रराज जारूपवाल बनाम श्रीमती विजय जारूपवाल ( ए.आई.आर. 2003 आंध्र प्रदेश 317 ) के मामले में एक अत्यन्त रोचक प्रश्न उठा कि क्या अधिवक्ता से भिन्न कोई व्यक्ति न्यायालय की अनुज्ञा से किसी प्रकरण विशेष में उपस्थिति दे सकता है ? आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने इसका सकारात्मक उत्तर देते हुए कहा कि यह अधिवक्ता के विधि व्यवसाय करने के अधिकार का एक अपवाद है । 

व्यक्ति , जो विधि व्यवसाय नहीं कर सकते

 ऊपर हमने देखा कि विधि व्यवसाय के लिए दो बातें आवश्यक हैं 

( i ) विधि स्नातक होना , तथा 

( ii ) अधिवक्ताओं की नामावली में नाम दर्ज होना । 

लेकिन यह सब कुछ होते हुए भी ऐसा व्यक्ति जो किसी अन्य व्यवसाय , व्यापार या कारोबार में लिप्त या संलग्न है जो विधि व्यवसाय नहीं कर सकता है । 

इस सम्बन्ध में डॉ . हनीराज एल चुलानी बनाम बार कौंसिल ऑफ महाराष्ट्र ( ए.आई.आर. 1996 एस . सी . 2076 ) का एक अच्छा मामला है । इसमें उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि- " विधि व्यवसाय एक पूर्णकालिक व्यवसाय है । अधिवक्ताओं को अपने व्यवसाय के प्रति समर्पित होकर कार्य करना होता है । उन्हें अपने पक्षकारों को पूरा समय भी देना होता है । अतः यह आवश्यक है कि कोई अधिवक्ता विधि व्यवसाय के अलावा अन्य कोई व्यवसाय करता है तो वह अपने पक्षकारों के साथ न्याय नहीं कर पाएगा । " इस मामले में अपीलार्थी एक चिकित्सक था और वह अपना नाम अधिवक्ताओं की नामावली में प्रविष्ट कराना चाहता था । 

इसी प्रकार शेख महबूब हुसैन बनाम सेक्रेटरी बार कौंसिल ऑफ आंध्र प्रदेश ( ए.आई.आर. 2003 एन.ओ.सी. 295 आंध्र प्रदेश ) के मामले में ऐसे व्यक्ति को विधि व्यवसाय करने का हकदार नहीं माना गया है जो औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 17 ख के अन्तर्गत अपने नियोक्ता से पूर्ण पारिश्रमिक प्राप्त कर रहा है । ऐसा व्यक्ति अपने प्रबंधक के अधीन नियोजन में माना जाता है । 

ऐसा ही एक और मामला डॉ . सांई बाबा बनाम बार कौंसिल ऑफ इण्डिया ( ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 2502 ) का है । इसमें उच्चतम न्यायालय द्वारा किसी ऐसे व्यक्ति को जो एस.टी.डी. बूथ चला रहा है , तब तक विधि व्यवसाय करने का हकदार नहीं माना गया है जब तक वह एस.टी.डी. बूथ को समर्पित ( Surrender ) नहीं कर देता अर्थात् वह इस व्यवसाय को छोड़ नहीं देता ।

को - ऑपरेटिव एग्रीकल्चरल बैंक लि . बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक ( ए.आई.आर. 2003 कर्नाटक 30 ) के मामले में न्यायालय में पैरवी करने के लिए वकालतनामे ( Vakalatnama ) को आवश्यक माना गया है । वकालतनामे के अभाव में केवल न्यायालय की अनुज्ञा से ही पैरवी की जा सकती है । 

एस . नागन्ना बनाम कृष्णमूर्ति ( ए.आई.आर. 1965 आंध्र प्रदेश 320 ) के मामले में सहायक लोक अभियोजक ( APP ) को विधि व्यवसाय का हकदार नहीं माना गया है क्योंकि वह राज्य की पूर्णकालिक सेवा में होता है । 

टी . वेंकन्ना बनाम हाईकोर्ट , मैसूर ( ए.आई.आर. 1973 मैसूर 127 ) के मामले में ऐसे अधिवक्ता को न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में पैरवी करने का हकदार नहीं माना गया है , जो मामले में स्वयं एक पक्षकार है । 

निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि विधि व्यवसाय करने का अधिकार केवल अधिवक्ता वर्ग को ही है , अन्य किसी वर्ग को नहीं । अधिवक्ता ऐसा हो 

( i ) जिसके पास विधि स्नातक की उपाधि हो , तथा 

( ii ) जिसका नाम अधिवक्ता की नामावली में प्रविष्ट हो । 

इसके बावजूद भी हरीश उप्पल बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया ( ए.आई.आर. 2003 एस . सी . 739 ) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि- “ अधिवक्ताओं का न्यायालय में उपस्थिति देने तथा पैरवी करने का अधिकार अबाध नहीं है । न्यायालय का अवमान करने , गैर वृत्तिक व्यवसाय करने या अनपेक्षित आचरण किए जाने पर किसी अधिवक्ता को विधि व्यवसाय से वंचित करने के सम्बन्ध में न्यायालय द्वारा नियम बनाए जा सकते हैं । " ( Advocates ' right to appear and conduct cases in court is not absolute . Court can frame rules debarring Advocates ' guilty of contempt , unprofessional and unbecoming conduct from appearing before courts . )

 

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