संस्कार या संविदा मुस्लिम विवाह Secrament,Contract Difference Hindu & Muslim Marriage Family Law
संस्कार या संविदा मुस्लिम विवाह Secrament,Contract Difference Hindu & Muslim Marriage Family Law
संस्कार या संविदा मुस्लिम विवाह Secrament,Contract Difference Hindu & Muslim Marriage Family Law
मुस्लिम विवाह एक धार्मिक संस्कार है या व्यावहारिक संविदा
मुस्लिम विवाह संविदा है अथवा संस्कार, इस सम्बन्ध में विभिन्न विधिवेत्ताओं ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये हैं। कुछ विधिवेत्ता इसे विशुद्ध रूप से एक सिविल संविदा मानते हैं तो कुछ सिविल संविदा के साथ-साथ श्रद्धात्मक कार्य। लेकिन अब यह प्रायः सुस्थापित हो गया है कि मुस्लिम विवाह एक 'सिविल संविदा' (Civil Contract) है।
मुल्ला के अनुसार- "विवाह एक संविदा है जिसका उद्देश्य सन्तानोत्पत्ति एवं संभोग को वैधता प्रदान करना है।"
हिदाया के अनुसार - "विवाह एक ऐसी विधिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा स्त्री एवं पुरुषं के बीच सम्भोग, सन्तानोत्पत्ति एवं धर्मजत्व को पूर्णरूपेण वैध बनाया जाता है।"
बेली के मत में- "विवाह दो विपरीत लिंग वाले व्यक्तियों के बीच एक ऐसी स्थायी एवं सम्पूर्ण व्यवहारिक संविदा है जो तत्काल प्रभाव में आती है और जिसका उद्देश्य आपसी संभोग एवं सन्तानोत्पत्ति को वैधता प्रदान करना है।"
अमीर अली के अनुसार- "मुस्लिम विधि के अन्तर्गत विवाह सारतः एक सिविल संविदा है। उसकी मान्यता एक ओर से 'प्रस्ताव' और दूसरी ओर से 'स्वीकृति' पर निर्भर करती है। "
फतवा-ए-आलमगिरी के अनुसार- " अन्य संविदाओं के समान विवाह के मुख्य आधार " इजब-ओ-कबूल' अर्थात् 'प्रस्ताव' और 'स्वीकृति' है ।"
'अब्दुल कादिर बनाम सलिमा' [ ( 1886 ) 8 इलाहाबाद 149] के मामले में न्यायमूर्ति महमूद द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि- “मुस्लिम विधि के अन्तर्गत विवाह संस्कार नहीं होकर एक सिविल संविदा है जिसमें प्रस्ताव और स्वीकृति के पूर्ण होने पर उससे उदभूत होने वाले सभी अधिकारों और दायित्वों का उद्भव बिना किसी पूर्ववर्ती शर्त के तत्काल हो जाता है।"
'सुबुरुन्निसा बनाम सबदू शेख' (ए.आई. आर. 1934 कलकत्ता 693 ) के मामले में यह कहा गया है कि- "मुस्लिम विधि के अन्तर्गत विवाह एक सिविल संविदा है और विक्रय की संविदा के समान है। विवाह की संविदा में पत्नी सम्पत्ति है और महर मूल्य ।"
पैगम्बर ने भी कहा है कि- "इस्लाम में साधू जीवन व्यतीत करने जैसी कोई बात नहीं है।" (There is no monkery in Islam.) प्रत्येक व्यक्ति को विवाह का अधिकाधिक आनन्द उठाना चाहिये ।
जबकि दूसरी तरफ अब्दुर रहीम और प्रो. ए. ए. ए. फैजी विवाह को सिविल संविदा के साथ-साथ एक श्रद्धात्मक कार्य भी मानते हैं।
अमीर अली के अनुसार - "विवाह एक ऐसी संस्था है जिसका उद्भव समाज की रक्षा के लिए हुआ तथा यह मानव समुदाय को निकृष्टता एवं भ्रष्टता से बचाता है।”
मुस्लिम विवाह में संविदा के तत्व-अब हम यह देखते हैं कि संविदा के ऐसे कौन-कौन से तत्व हैं जो मुस्लिम विवाह में पाये जाते हैं। मुस्लिम विवाह में संविदा के निम्नांकित तत्व पाये जाते हैं-
(i) प्रस्ताव एवं स्वीकृति - भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अन्तर्गत किसी संविदा के गठन के लिए 'प्रस्ताव' (Proposal) एवं 'स्वीकृति (Acceptance) का होना आवश्यक है। इसी प्रकार मुस्लिम विवाह के लिए भी प्रस्ताव और स्वीकृति अर्थात 'इजब-ओ-कबूल' का होना अनिवार्य है।
(ii) प्रतिफल - जिस प्रकार संविदा अधिनियम के अन्तर्गत विधिमान्य संविदा के लिए 'प्रतिफल' (Consideration) का होना आवश्यक है, उसी प्रकार मुस्लिम विवाह में भी प्रतिफल का होना अनिवार्य विवाह में 'महर' को प्रतिफल माना जाता है।
(iii) शर्तों में परिवर्तन- भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 67 के अन्तर्गत जिस प्रकार संविदा की शर्तों में परिवर्तन कर नई शर्तें पुनर्स्थापित की जा सकती हैं, उसी प्रकार मुस्लिम विवाह में भी महर सम्बन्धी शर्तों में कभी भी परिवर्तन किया जा सकता है।
(iv) माध्यम - जिस प्रकार संविदा अधिनियम के अन्तर्गत संविदा पत्र- व्यवहार, टेलीफोन, टैलेक्स, इन्टरनेट आदि के माध्यम से की जा सकती है, उसी प्रकार मुस्लिम विधि के अन्तर्गत विवाह भी इन माध्यमों से सम्पन्न किया जा सकता । यहाँ तक कि मुस्लिम विधि में दूरदर्शन एवं इशारों द्वारा विवाह किया जाना भी निषेधित नहीं है।
(v) उपधारणा - भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 68 से 72 के उपबंधों के अनुसार जिस प्रकार संविदा बिना प्रस्ताव एवं स्वीकृति के भी निर्मित हो सकती है, उसी प्रकार मुस्लिम विवाह भी बिना प्रस्ताव एवं स्वीकृति (इजब- ओ-कबूल) के सम्पन्न हो सकता । ऐसी संविदा को उपधारणायुक्त अथवा संविदा के सदृश्य अथवा संविदा-कल्प (Quasicontract ) कहा जाता 1
(vi) तलाक- मुस्लिम विधि में तलाक की व्यवस्था भी विवाह को संविदा का स्वरूप प्रदान करती है। मुस्लिम विधि में तलाक अत्यन्त आसान है अर्थात् पति तलाक के शब्दों का तीन बार उच्चारण करके कभी भी अपनी पत्नी को तलाक सकता है। इसी प्रकार हँसी मजाक और नींद में भी तलाक दिया जा सकता है। इससे विवाह का संस्कारात्मक स्वरूप समाप्त हो जाता । जहाँ विवाह एक. संस्कार होता है, वहाँ पति-पत्नि में जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध माना जाता है, अर्थात् तलाक (विवाह-विच्छेद) इतना आसान नहीं होता ।
हिन्दू एवं मुस्लिम विवाह में अन्तर- मुस्लिम विवाह के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए यहाँ हिन्दू विवाह से उसके अन्तर को स्पष्ट करना समीचीन होगा, क्योंकि हिन्दू विवाह को एक पवित्र संस्कार माना गया है। इन दोनों में निम्नांकित अन्तर पाया जाता है-
हिन्दू विवाह व मुस्लिम विवाह
(1) हिन्दू विवाह एक संस्कार है। इसका धार्मिक महत्व एवं स्वरूप है। पत्नी को पति की अर्द्धांगिनी माना जाता है। पत्नी के बिना कोई धार्मिक या सामाजिक समारोह सम्पन्न नहीं हो सकता।
(1) जबकि मुस्लिम विवाह एक संविदा है। इसका कोई धार्मिक स्वरूप नहीं है। यहाँ तक कि मुस्लिम विवाह की विधिमान्यता के लिए किसी धार्मिक समारोह का सम्पन्न किया जाना भी आवश्यक नहीं है।
(2) हिन्दू विवाह में प्रतिफल (Considera tion) जैसी कोई बात नहीं होती।
(2) जबकि मुस्लिमत विवाह में 'महर' के रूप में प्रतिफल देय होता है । इसमें पत्नी सम्पति होती है और महर उसका प्रतिफल ।
(3) हिन्दू विधि में बहु-विवाह को मान्यता नहीं दी गई है अर्थात् कोई भी पुरुष एक समय में एक से अधिक स्त्रियों से विवाह नहीं कर सकता है।
(3) जबकि मुस्लिम विधि के अन्तर्गत कोई पुरुष एक समय में चार स्त्रियों तक से विवाह कर सकता है। अर्थात् वह एक साथ चार पत्नियाँ रख सकता है।
(4) हिन्दू विधि में विवाह विच्छेद आसान नहीं है। इसमें केवल निर्धारित आधारों पर ही तलाक दिया जा सकता है।
(4) जबकि मुस्लिम विधि के अन्तर्गत विवाह विच्छेद अर्थात् तलाक अत्यन्त आसान है।
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